मेरे छोटे से शहर मैं कार्तिक माह की पूर्णिमा पर एक मेला लगता था और आज भी लगता है . इस मेले मैं अमीर गरीब आसपास के गांव वाले बड़े छोटे सब लोग झुण्ड के झुण्ड आते थे (शायद अभी भी आते हो). घूमना फिरना मौज मस्ती खेल नौटंकी गाना बजाना देखना खाना पीना और एन्जॉय करना. कुछ मुफ्त मैं और कुछ बहुत ही कम या उचित दाम पर.
इधर महानगर के मॉल मैं आज तक मेने कोई गांव वाला या गरीब आदमी नही देखा . मॉल में शायद ही कोई मनोरंजन मुफ्त मैं मिलता हो . खानापीना बेतहाशा महंगा और लोग अपने मैं मस्त. मूवी देखना एक महंगा सौदा.
क्या आज की बाजारी व्यवस्था गरीबो को मनोरंजन से भी वंचित कर रही है ? मेले ठेले सर्कस आदि विलुप्त होते जा रहे हैं जो आदमी मॉल की महंगाई को ना साध पाए तो अपने बीवी बच्चों को लेकर कहा जाये ?
इधर महानगर के मॉल मैं आज तक मेने कोई गांव वाला या गरीब आदमी नही देखा . मॉल में शायद ही कोई मनोरंजन मुफ्त मैं मिलता हो . खानापीना बेतहाशा महंगा और लोग अपने मैं मस्त. मूवी देखना एक महंगा सौदा.
क्या आज की बाजारी व्यवस्था गरीबो को मनोरंजन से भी वंचित कर रही है ? मेले ठेले सर्कस आदि विलुप्त होते जा रहे हैं जो आदमी मॉल की महंगाई को ना साध पाए तो अपने बीवी बच्चों को लेकर कहा जाये ?
आज ग़रीबों की इसे फ़िकर है।
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